
अपने समाज, परिवार, मंडली के योग्य बनने के लिए हम सब अपनी पहचान बनाने में लगे हैं। कोई काम से, कोई पैसे से, कोई आवाज़ से, कोई धर्म से अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाने का संघर्ष करता रहता है। इस संघर्ष के चक्कर में हम दूसरों की नज़रों में उपयुक्त दिखने के लिए अपने आप को उनके अनुसार ढाल लेते हैं, जो शायद हमें पसंद भी ना हो। अब जब दूसरों के आधार पर पहचान बनायीं जाती है तोह जीवन भर हमारा व्यक्तिगत पहचान से द्वंद्व रहता है। पहचान के संकट से सिर्फ युवा नहीं बल्कि बड़े लोग भी जूझते हैं।
हमारी पहचान बनाने में परवरिश, परिवार, पढ़ाई, काम का माहौल, मित्रमंडली, रुचियाँ, शौक इत्यादि सबका योगदान रहता है। मैं जैसे मध्यम वर्गीय परिवार से आता हूँ तोह मेरी पहचान में मध्यम वर्गीय मूल्य जैसे कंजूसी, कम जोखिम लेना झलकता है। मेरी शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक पढ़ाई के कारण बौद्धिक आचरण दिखता है। अब क्यूंकि हमारी पहचान का विकास कई सूत्रों से हो रहा इसलिए स्वाभाविक है की कुछ मूल्यों पर उलझन होगी ही। जैसे मुझे लगता है की, मेरे पास वो कौशल और मेहनत करने का जज़्बा है की मैं खुद का काम शुरू कर सकता हूँ पर फिर जीवन की दूसरी चीज़ों को ध्यान में रखते हुए अपनी इस पहचान को अन्वेषण नहीं कर पता।
अक्सर महान लोग और बुज़ुर्गलोग भी कहते हैं की अपने मन की सुनो। अपनी पहचान खुद की नज़रों से बनाओ। दूसरों की कॉपी मत बनो बल्कि अपनी ओरिजिनल वर्शन को बेहतर बनाओ। हाँ, दूसरों के विचार मायने रखते हैं, यदि वो आपके बुनियादी मूल्यूं से संरेखित हो तोह। हम अपनी पहचान को तब ही बेहतर बना सकते हैं जब हम अपने मूल्यों के हिसाब से कार्य करें। कुछ जगह या लोग शायद हमें ना अपनाएं पर हमें खुद की नज़रों में अपनाना आना चाहिए। दुनिया से कभी-कभी झूटी पहचान से काम बन जाएगा पर खुद से कभी उस झूटी पहचान को बढ़ावा मत देना। अति उत्तम पहचान बनाने के पीछे मत भागो, अपने बुनयादी मूल्यों के अनुरूप रहो, आपकी सही पहचान खुद आपके पास आएगी।
P.S- अपने अपूर्णता और पूर्णता दोनों से प्यार करें क्यूंकि कमियां और ताकतें दोनों से आपकी पहचान होती है।
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