
किसी अपने को खोना, मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा कष्ट है। ऐसे शोक के समय में दर्द, गुस्सा, डर और खेद सब एक साथ महसूस होने लगते हैं। किसी का रोना नहीं रुकता, तोह कोई खो देने के सदमे से बहार नहीं आता। शोक मनाने का कोई तर्रिका सही या गलत नहीं होता। अपनों को खो देने का कष्ट और शोक दोनों बहुत ही निजी होता है।
मेरे दादा जी जब परलोक सिधार गए। तब मुझे ये कष्ट का अनुभव हुआ। मैं उनके बहुत नज़दीक था। फिर जब उनका स्वर्गवास हुआ ऐसा लगा मानो मेरे जीवन का एक खूबसूरत हिस्सा ही ख़तम हो गया। बहुत रोना आता था। उनके बिना वाला जीवन भी कम पसंद आने लगा। हर दूसरी बात में उनकी याद आने लगती। जीवन में इतना बड़ा बदलाव अन्यायपूर्ण सा लगता।
ऐसे समय में सबसे आम सलाह ये ही मिलती है की, मजबूत रहो और आगे बढ़ो। मैं इन सलाहों से असहमत नहीं हूँ। पर ये मानता हूँ की शोक मनाना जरूरी है, उसमे सभी भावनाओं से गुज़रना भी जर्रूरी है। क्यूंकि ये सबके बाद ही एहसास मिलता है की अपनों को खो देना, हमारे हाथ में नहीं है बल्कि विधि का विधान है। संसार का ये ही कटु सत्य है। जब इतनी समझ और स्वीकृति आ जाए तब खुद को होंसला देना और संभालना आ जाता है।अपनों को खो देने का घाव शायद ही कभी भरा जा सकता है पर घाव के साथ जीना तोह सीखा जा सकता है।
P.S- दर्द कभी ख़तम नहीं होता वो तोह बस समय के साथ कम होता है।
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