महाभारत में कहा गया है की दया सबसे बड़ा धर्म है। आज विश्व में जितने भी धर्म हैं वह सब दयालुता का उपदेश देते हैं। अब तोह हर साल 13 नवंबर को विश्व दयालुता दिवस भी मनाया जाता है। दयाभाव को लेकर जब इतना कुछ कहा गया और प्रचार किया जा रहा है, तोह फिर रोज़मर्रा के जीवन में दया की भावना विलुप्त होते हुए क्यों लग रही है?

मैंने अपनी दयाभावना को समझना शुरू किया जब मुझे दूसरों के प्रति सहानुभूति का एहसास होने लगा। फिर चाहे वो अमीर हो या गरीब, छोटा हो या बड़ा, मनुष्य हो या जानवर, जब कभी दूसरों के लिए हमदर्दी के भाव उत्पन हुए, मुझे अपने दयालुता का एहसास हुआ। कुछ जगह अपनी क्षमता के हिसाब से उदारता भी प्रकट करी पर कई जगह मदद नहीं कर सका। दान करने से लेकर किसी का दुःख समझने तक जो भी चीज़ें दूसरों के जीवन में मामूली-सा भी फर्क ला दें मेरे लिए वही दयालुता है। दयालुता ना तोह मुझे कमज़ोर बनाती है ना दूसरों को नीचा दिखाने का भाव देती है। मैं तोह खुद बहुत सारे लोगों का शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने मेरे प्रति दयाभाव रखें तथा मुझे सहयोग दिया।

एक सच ये भी है की, कलयुग के दौर में दयालुता का गलत फायदा उठा लिया जाता है। कई बार हमारी दयालुता हमारा निजी नुक्सान भी कर देती है। इसलिए दयाभाव भी आजकल नापतोल के हिसाब से किया जाता है। मेरा ये ही मानना है की नापतोल से ही सही, पर करुणाभाव का होना अत्यंत आवश्यक है। कलयुग में इंसानियत ही है जो हम सबको एक दूसरे से जोड़े रखने का प्रयत्न करती है और दयाभाव उसी इंसानियत की भावना को ज़िंदा रखे हुए है। हम सब दानवीर कर्ण की तरह तोह कदापि नहीं बन सकते, पर खुद के प्रति दयाभाव रख कर, खुद का ध्यान रख कर हम अपनी दयालुता की शुरुआत कर सकते हैं। दयालुता वो धन है जो संसार में सभी जीवों के पास है, बस इसको खर्च कैसे करना है ये ही समझने की मूल बात है।

P.S- दया एक ऐसी भाषा है जिसे बोलने के लिए शब्दों की जरूरत नहीं होती है।
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